कोई , दिन , गैर ज़िंदगानी और है
अपने जी में हमने ठानी और है .
आतशे – दोज़ख में , यह गर्मी कहाँ ,
सोज़े -गुम्हा -ऐ -निहनी और है .
बारहन उनकी देखी हैं रंजिशें ,
पर कुछ अबके सिरगिरांनी और है .
दे के खत , मुहँ देखता है नामाबर ,
कुछ तो पैगामे जुबानी और है .
हो चुकी ‘ग़ालिब’, बलायें सब तमाम ,
एक मरगे -नागहानी और है .
– मिर्ज़ा ग़ालिब