नहीं लिख सकता में इस कलम से एक नारी की वो ज़ुबानी को ,
शब्दों से कैसे बयां करूं में दर्द और खून से भरी उस कहानी को,
उसे दर्द सेहना पड़ता है फिर क्यों सबसे दूर रहना पड़ता है??
पहेली बार जब सिलसिला शुरू होता है ये दर्द को सेहने का ,
बाद में क्यों हक छीन जाता है उस नारी को स्वतंत्र रहने का,
उसे दर्द सेहना पड़ता है फिर क्यों सबसे दूर रहना पड़ता है??
जिस महावारी की बदौलत है ये दुनिया उसपे बात करने पर जिजकती है दुनिया सारी,
कुदरत के इस बंधन पे सामाजिक रिवाजों की वजह से और ज्यादा दर्द सहती है नारी,
उसे दर्द सेहना पड़ता है फिर क्यों सबसे दूर रहना पड़ता है??
पीड़ा होने पर भी वो दर्द बयां नहीं कर सकती ऐसा माहौल आसपास बन जाता है,
हस्ते हस्ते वो सह जाती है महावारी की पीड़ा फिर भी क्यों उस कलंक समझा जाता है,
उसे दर्द सेहना पड़ता है फिर क्यों सबसे दूर रहना पड़ता है??
अनहद पीड़ा होने पर भी वो अपने दर्द को अपनी हसीं के पीछे छुपाकर रखती है,
इन दिनों में उसको ताने नहीं मगर प्यार की जरूरत है ये दुनिया क्यों नहीं समजती है,
उसे दर्द सेहना पड़ता है फिर क्यों सबसे दूर रहना पड़ता है??
पूरे जीवन के सात साल जितने दिन एक नारी इस लहू भरी असहनीय पीड़ा में गवाती है,
थकान, पीड़ा , तनाव में दिन गुजारने के बाद भी मर्ज़ी से वो कहीं सो नहीं पाती है,
उसे दर्द सेहना पड़ता है फिर क्यों सबसे दूर रहना पड़ता है??
– ध्रुव पटेल “अंचल”