मुझे कविता नहीं आती..
मैं तो बस कलम में
तुम्हारे ख़यालो की श्याही भरती हूँ..
और फिर..
अल्फ़ाज़ टपकतें रहतें हैं कलम से
जो कागज़ के कोने-कोने को रंगो से भर देतें है..
बहुत शरारती हैं वो
छेड़तें रहतें हैं मुझे, बार-बार तुम्हारे नाम से,
कभी वस्ल की खट्टी-मीठी बातों से
वो मुझे गुदगुदाने लगतें हैं..
तो कभी हिज़्र की अमावस्या में
उतार लातें हैं तुम्हारी यादों की रौशनी..
और रौशन कर जाते हैं मेरा वजूद,
कभी-कभी बहुत बेबाक हो जाते हैं..
उड़ेल देतें हैं सारे जज़बातो को,
तर कर देतें हैं भीगे एहसासो से,
और तब अल्फाज़ो से ‘खुशबुएतू’ आने लगती है !
जिसे लोग कविता कहते हैं!
मुझे कविता नहीं आती.. मैं तो बस ……..
~ शबनम