तेरी मर्जी नहीं मानता हूँ,
बिना सोचे नामर्जी का इशारा सह नहीं सकता|
इतनी उम्र कहाँ मेरी, रोते-बिलखते सृष्टि छोड़ दु,
हर पत्थर पिघलने की राह देख नहीं सकता|
खुली हवा तुजे देख शर्मा रही है,
तु उनसे भी मुंह फेर ले देख नहीं सकता|
हर राह पतझड़ से भरी,
सावन के लिए बेक़रार धुप देख नहीं सकता|
पिले पत्ते को देख हंसी रूकती नहीं थी,
अब उन्हें देख हंस नहीं सकता|
हर अँधेरे में रश्मि की दुआ की थी,
सिर्फ सांझ बर्दाश्त कर नहीं सकता|
तेरे प्यार में जिंदगी तब्दील होते देख,
अब रो भी नहीं सकता|
– दिव्यकांत पंड्या ‘मुफ़लिस’