कितनी बेकार सी बातों में उलझ जाता हूँ
ज़िन्दगी मैं तेरे झांसों में उलझ जाता हूँ।
राहे-दुश्वार पे चलने का सलीका है मुझे
बस तेरे शहर की सड़कों में उलझ जाता हूँ
तू भी हर रोज़ लगाता है नई तरक़ीबें
रोज़ मैं भी तेरे धोकों में उलझ जाता हूँ।
रात तो ग़म की पनाहों में गुज़र जाती है
और दिन भर मैं तक़ाज़ों में उलझ जाता हूँ ।
मेरे इनकार को इकरार समझने वालो
मैं फ़क़त उसके इशारों में उलझ जाता हूँ
आह, सिसकी,तेरी फुरक़त औ’ मेरी तन्हाई
रात होते ही मैं यारों में उलझ जाता हूँ ।
यूसुफ़ रईस