देखो सूर्य उगा पूरब में ,
धरती का सुनापन हरने ..
ज्यों ज्यों सूरज चढ़ता जाता ,
(धरती) उसका रूप निखरता जाता ..
आतुर है वो पिया मिलन को,
सजी है मिलने अपने सजन को .
सर पे है हरियाली चुनर,
पंछी के कलरव के घूँघर..
इठलाती है , बलखाती है ,
थोडा थोड़ा शरमाती है ..
वो तो पगली सूर्य -प्यार में ,
तपती रहती इंतज़ार में ..
पर है सूर्य अभी भी व्यस्त
अपने काम में बिलकुल मस्त !
बिना मिले ही चलता जाता ,
पश्चिम की ओर ढलता जाता ..
देखो ये कैसा चित्तचोर,
सुना न उसके मन का शोर..
हाँ, अब आँखे लाल हुई है.
देखो ना फिर शाम हुई है…
वो न रुकेगा जान गई वो
खुद से हार मान गई वो..
उसने न रोका सूरज ढलते
सूरज बोला चलते-चलते..
“वादा है ये , निभाऊँगा मैं,
कल फिर मिलने आऊँगा मैं।”
✍? शबनम