ए कुदरत ! तेरा आज़माना नहीं देखा,
इक ज़माना हो गया ज़माना नहीं देखा।
तेरी बाहों के सिवा ठिकाना नहीं देखा,
ख़ुद का कोई और आशियाना नहीं देखा।
उन आंखों का नशा कभी भी नहीं उतरा,
इन आंखों ने तो मयखाना नहीं देखा।
मुझ में ही था कहीं, कहीं भी नहीं हैं वो,
इक अरसा सा हुआ, दिवाना नहीं देखा।
वो अक्ष ही ना रहा, हसाता सभी को था !
ना यकीन, कजा़ का पैमाना नहीं देखा !
– अक्षय धामेचा