ढलती शाम को
ढलती शाम को
आँगन में
तुम्हे सोचते हुए
गर्म चाय का कप लिए हुए बैठी थी।
कप से निकलते हुए धुँए का गर्म एहसाह
याद दिला गया तुम्हारी गर्म सांसो की छुअन!
कप को होंठो से लगाते ही मुँह में घुल गया
चाय का कड़क मीठा स्वाद..
कुछ वैसे ही जैसे हमारे होंठो के मिलन के बाद होता था।
मैं घूंट-घूंट पीती रही, बीते लम्हो को जीती रही
वो लम्हे जो कभी साथ जिये थे..
धीरे~धीरे चाय ख़त्म होती रही ..
धीरे~धीरे शाम पर चाय का वो रंग चढ़ने लगा..
धीरे ~धीरे उन रंगों से
एक चहेरा मुझे ताकने लगा..
और मैं…
दे………र तक
बहुत देर तक..
उसकी आँखों में देखती रही..
बस देखती रही ।
– शबनम