अगर चाहिए सुकून तेरे बहरे कान को…
तो काटना पड़ेगा हमारी ज़ुबान को…
शहरे-ख़मोश की है रिवायत अजीब सी,
है बोलने की छूट फ़क़त बेज़ुबान को…
इस दौर में उसी की सलामत रहेगी जान,
जिसने समझ लिया है समय की ढलान को…
निकले सभी के जैसे ख़रीदार आप भी,
दरकार थी सहारे की हिलते मकान को…
वो दौर कोई और था ये दौर कोई और,
अब खोलियेगा सोच समझकर ज़ुबान को…
अब के लड़ाई दम्भ से है हौसलों की ‘अक्स’,
बारूदो-बम से लड़ना है तीरो-कमान को
~ अक्स समस्तीपुरी