नजऱ की ख़ता बेख़ुदी हो गयी है ।
ग़मों का सफ़र ज़िन्दगी हो गयी है ।
मुझे इश्क़ की चाह बेशक़ नही अब ।
मुहब्बत मेरी आख़िरी हो गयी है ।
भरोसा करूँ तो करूँ यार किस पे ।
यहाँ संगदिल मुफ़लिसी हो गयी है ।
ज़रूरत से ज़्यादा जिसे चाहता था ।
वही दर्द की रोशनी हो गयी है ।
मयस्कर नही मस्तियाँ महफिलों की ।
वफ़ादार यूँ बेबसी हो गयी है ।
उड़ा जुगनुओं सा अंधेरों में हरदम ।
उजाले से यूँ दुश्मनी हो गयी है ।
शिक़ायत नही है ज़माने से रकमिश ।
सितमगर मेरी आशिक़ी हो गयी है ।
✍_ रकमिश सुल्तानपुरी