दर्द का ख़ुद को तलबगार समझ रखा है,
हमने ज़ख़्मों को भी गुलज़ार समझ रक्खा है.
जिन झरोखों से घुटन होती है घर में दाख़िल,
घर ने उनको भी हवादार समझ रक्खा है.
रोशनी देगा भला कैसे कोई ऐसा चराग़,
जिसने आँधी को मददगार समझ रक्खा है.
रख दिया रद्दी में इक बार ही पढ़ कर मुझको,
बाज़ लोगों ने तो अख़बार समझ रक्खा है.
उनकी नीयत में फ़क़त दोस्ती है इतनी सी,
सर कटाने के लिए यार समझ रक्खा है.
इम्तिहाँ हमको ही देने हैं अब वफ़ाई के,
उसने ख़ुद को तो वफ़ादार समझ रक्खा है.
कुछ तो हालात नुमाईश में हमें ले आए,
और कुछ आपने बाज़ार समझ रक्खा है.
कौम जो वक़्त पे सर अपना कटा सकती है,
उनको कुछ लोगों ने ग़द्दार समझ रक्खा है.
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी