कोई पुछे बदलते मौसम के बारे में तो इतना कहना,
बाहर फागुन की धूप और मेरी आंखें
“बरसात” बता रही है,
कोई होता जो रुक जाता दिल में छाता लेकर,
दहलीज़ पे मेरी निगाहें कमबख्त बरसती जा रही है,
मंजर थोड़ा अलग है निगाहों का फागुन से,
कोई रंग से खेल रहा यह बेरंग आंसु बहा रही है,
कोई लाया था तोहफ़े में फूल पलाश का,
इक हीना जो हाथों से उतरती जा रही है,
ना जाने कितने मौसम बदले पर वो सुबह लौटी नहीं कभी,
उसने मांग भरी थी अपने हाथों से कभी मेरी
वो जाने क्यों इस मौसम धुली जा रही है,
कोई पुछे बदलते मौसम के बारे में तो इतना कहना,
बाहर फागुन की धूप और मेरी आंखें
“बरसात” बता रही है,
नीता कंसारा