याद है सर्दियों की सुबह
जब धुँध से आँख मिलाकर
तुमसे मिलने आया करता था मैं
और तुम उनींदी आँखों से मेट्रो की सीढ़ियों पर
बाट जोहा करती थीं मेरी
अपनी ठंडे हाथ तुम्हारी गर्म हथेलियों में रखकर
दुहराता था केदारनाथ सिंह की कविता :
उसका हाथ
अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा
दुनिया को
हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए
तुम लजाकर झटक देती थीं मेरा हाथ
और मेरे चश्मे के दोनों लेंस पर
कन्नी उँगली से लिख देती थीं अपने नाम के दो अक्षर
तुम्हें शिकायत रहती थी
कि मेरे चश्मे का फ़्रेम छोटा है बहुत
कि उसके लेंस पर नहीं आता हम दोनों का नाम
और इतना कहकर किसी पौधे की तरह
झुक जाता था तुम्हारा सिर मेरे बाएँ कांधे पर
एक रोज़,
जब टूट गई थी मेरी कोल्हापुरी
तब उतार दी थी तुमने भी अपनी चप्पल
और उड़ने लगी थीं मेरे साथ हरी दूब पर
उस रोज़ आख़िरी बार घास इतनी अधिक सब्ज़ हुई थी
और तुम इतनी अधिक गुलाबी
उस रोज़ आख़िरी बार दिल्ली में इंद्रधनुष अपनी पूरी रंगत में निकला था
और आख़िरी बार मैंने बादलों पर घोड़े दौड़ाए थे
तुम्हारी यादों की नदी में,
मैं रोज़
डूबता हूँ
और रोज़ तलाशता हूँ किनारा
मेरे चश्मे का फ़्रेम अब कुछ बड़ा हो गया है
लेकिन तुम्हारी उँगलियाँ इतनी दूर
कि मेरी दूर की नज़र को भी वे नज़र नहीं आतीं
कोल्हापुरी अब टूटती नहीं है
और धुँध के साथ चलना सीख लिया है मैंने
बस्स! हाथ ठंडे रहते हैं
और बायाँ कांधा…
बायाँ कांधा बहुत दुखता है सर्दियों में।
~ Anjum Sharma