देखते-देखते तजुर्बे से उम्र भी ढ़ल गई,
साँसो का आधा कतरा भी यूँ कट गया।
उम्मीदों का दामन थामे बुढ़ापे में झूक गए,
तिनका तिनका बिखरा पर ना मिला सहारा।
अपने साथ हो तो बुढ़ापा भी जन्नत है,
ग़र हो खिलाफ तो बुढ़ापा भी जहन्नुम है।
थामी थी जिसकी उंगली बचपन में हमने,
दिखाया उसीने ही वृद्धाश्रम का आईना।
शिकायत भी हम क्या करें चार दीवारों से,
इसकी भी आँख खुली और कान बंद है।
अब तो ना मिलती है मौत ना ही खुशियाँ,
मिलती है तो सिर्फ दो वक़्त की रोटियाँ।
-नितेश प्रजापति (निहर्ष)