जब जब मुझे कुछ लिखने का मन होता है ,
वो एक नए अजीब शहेर के बारे में लिखती हूं ।
ना कोइ अपना है फिर भी सबको बहुत अच्छे से जानती हूं ,
ना कोइ छत है फिर भी अच्छे से सोती हूं ।
वो नए शहर के चांद से बाते करती हूं ,
ऐसे ही मेरे कुछ टूटे ख्वाबों को अंजाम देती हूं ।
कुछ परायो को अपनों सा महसूस करती हूं ,
वो समंदर के किनारे बैठे लहरों को समजती हूं ।
नहीं अकेला तु भी सिर्फ, मै भी यहां अकेली हूं,
बोलती है वो भी तु अकेली टूटी नहीं, मै भी टूटी हुई हूं ।
तुम वी नहीं, मै भी वो शहर से अंजान हूं ,
नही है कोइ किसी का, मै भी एक मुसाफिर हूं।
हँसना झूठी बातों पर
सूरज पर प्रतिबंध अनेकों और भरोसा रातों पर नयन हमारे सीख रहे हैं हँसना झूठी बातों पर हमने जीवन की...