मूक बधिरों के भीतर उठती पीड़ाओं का कंठ हूँ।
मैं मौन अधरों के अंतर्मन की वेदना का स्वर हूँ।।
मैं प्रतिबिंब हूँ समाज की सच्चाई का,
झूठों की झूठी-बनावटी अच्छाई का।
जानकी के सतीत्व पर समाज के सवालों का,
भान हैं मुझे अब-तक द्रौपदी की चित्कारों का।।
लालसा में कैकयी की, दशरथ को मिला दर्द हूँ,
मैं मौन अधरों के अंतर्मन की वेदना का स्वर हूँ।।
जिन कामगारों के वेतन लूट लिये जाते हैं,
और निवालों पर गरीबों के शोर किये जाते हैं।
जिन नर के सपने परिवार की भेट चढ़ जाते हैं,
असीम पीड़ा सह कर भी जो केवल मुस्कराते हैं।।
मैं उन समस्त गर्भित व्यथाओं का मर्म हूँ,
मैं मौन अधरों के अंतर्मन की वेदना का स्वर हूँ।।
मैं स्वर हूँ भ्रष्टाचार से तंग जन समुदायों का,
सरकारी वादों से परेशान जनताओं का।
जिन सड़कों का साल भीतर श्राद्ध हो गया,
उन पर दयनीय फैले-बिखरे कंकालों का।।
जन चेतना को बदलाव की चीखता संकल्प हूँ,
मैं मौन अधरों के अंतर्मन की वेदना का स्वर हूँ।।
– Nitin Kalal