पहाड़ों के कदों की खाइयाँ हैं
पहाड़ों के कदों की खाइयाँ हैं
बुलन्दी पर बहुत निचाइयाँ हैं
है ऐसी तेज़ रफ़्तारी का आलम
कि लोग अपनी ही ख़ुद परछाइयाँ हैं
गले मिलिए तो कट जाती हैं जेबें
बड़ी उथली यहाँ गहराइयाँ हैं
हवा बिजली के पंखे बाँटते हैं
मुलाज़िम झूठ की सच्चाइयाँ हैं
बिके पानी समन्दर के किनारे
हक़ीक़त पर्वतों की राइयाँ हैं
गगन-छूते मकाँ भी, झोपड़े भी
अजब इस शहर की रानाइयाँ हैं
दिलों की बात ओठों तक न आए
कसी यूँ गर्दनों पर टाईयाँ हैं
नगर की बिल्डिंगे बाँहो की सूरत
बशर टूटी हुई अंगड़ाइयाँ हैं
– सूर्यभानु गुप्त