आई है तो क्या यहीं आकर पसर जाएगी रात ,
राह चलती इक मुसाफिर है, गुजर जाएगी रात.
परवरदिगार जानता है दो दिलों के हाल,
तमाम आरज़ूओं को मुक़म्मल कर जाएगी रात.
आंसुओं की भीख माँगते कहाँ -कहाँ भटकोगे ?
तुम्हारा लटका हुआ चेहरा देख ,डर जाएगी रात।
ठीक है जवानी में अक्सर हो जाती हैं नादानियाँ,
सितारों से भरे आसमान में , उतर जाएगी रात.
लहूलुहान हो गया है , चारों और का ये अँधेरा,
‘कान्त ‘ की आँखों में ठहर जाएगी रात.
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-कृष्णकांत भाटिया ‘कान्त’