कश्मकशो से भरा वो एक दौर था, जब करीब होकर भी तु मुझसे दूर था
साथ तो था हर पल मेरे, लेकिन मानो मीलो दूर था,
कभी न जान पाया वो मुझे, या सचमुच मे बेखबर था,
जिक्र कर लेते तो अच्छा होता, न किया वो मेरा कुसूर था,
मान बैठे थे जिसको खुदा, वो तो एक काफिर था,
चाहा था जिसको मंजिल की तरह पाना, वो खुद ही बिछडा मुसाफिर था,
समज न सके क्यो दूर गया वो, क्या वो ही मेरी मंजिल था,
क्युं चाहती थी मे पाना उसको, जब वो मेरी मंजिल ही नही था,
या जिसको समजती थी अपना सा, वो गैर कोई और था,
सोचा नही था मबजूरियां मेरी, कर देगी दूर उसे ईतना सा,
या बसा था खौफ दिल मे उसके, मेरे बोझ का गहरा सा,
कर देते सपनो तक से दूर अपने, दफा एक बोलता जरा सा,
कैसे करु यकिन अब ये, जो छोड गया वो अपना था
क्या टूटकर चाहना उसे ही, कातिलाना खंजर था
– आदित शाह “अंजाम”